श्रीलक्ष्मीभिक्षाष्टकम्

                            रचयिता
                  पं.श्रीव्रजकिशोरत्रिपाठी
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(१)
हे क्षीरसागरसुते जगदीशकान्ते
हे भक्तचित्तविदिते धनसिन्धुयुक्ते !।
हे लोकतारणरते सततं सुवन्दे
हे लक्ष्मि देहि जननि क्षुधिताय भिक्षाम्।।
(२)
पद्मे सुपद्मनयनेऽखिलभाग्यकर्त्त्रि
पद्मासने ललितपद्मधरेन्नभर्त्त्रि !।
पद्मालये तव पदं सततं सुवन्दे
हे लक्ष्मि देहि जननि ! क्षुधिताय भिक्षाम्।।
(३)
चन्द्रस्वसः सकललोकविषादहन्त्रि
रत्नाकरे सुखकरे हितवर्गदात्रि !।
पाहि त्वमेव कमले सततं सुवन्दे
हे लक्ष्मि देहि जननि ! क्षुधिताय भिक्षाम्।।
(४)
हे सिन्धुराजतनुजे मुनिवृन्दवन्द्ये
हे विष्णुदेववनिते प्रविनोदकन्द्रे !।
हे स्वर्णपूर्णकलसे सततं सुवन्दे
हे लक्ष्मि देहि जननि ! क्षुधिताय भिक्षाम्।।
(५)
आनन्दकर्द्दमतपस्विगणाभिनन्द्ये
श्रींमन्त्रतुष्टहृदये भुवनैकवन्द्ये !।
देवादिसर्वसुखदे सततं सुवन्दे
हे लक्ष्मि देहि जननि ! क्षुधिताय भिक्षाम्।।
(६)
विद्यादिलक्ष्मि गजलक्ष्मि जयाढ्यलक्ष्मि
हे धैर्यलक्ष्मि धनलक्ष्मि च धान्यलक्ष्मि !।
सन्तानलक्ष्मि वरदे सततं सुवन्दे      
हे लक्ष्मि देहि जननि ! क्षुधिताय भिक्षाम्।।
(७)
हे ऋद्धिलक्ष्मि जनवैभवलक्ष्मि मातः
हे भाग्यलक्ष्मि शुभदे वरलक्ष्मि दिव्ये !।
ऐश्वर्यलक्ष्मि विमले सततं सुवन्दे 
हे लक्ष्मि देहि जननि ! क्षुधिताय भिक्षाम्।।
(८)
त्रैलोक्यपोषणरते जनसिद्धिसाधे
दारिद्र्यनाशचरिते भवदुःखबाधे !।
ऐश्वर्यभूषणकरे सततं सुवन्दे
हे लक्ष्मि देहि जननि ! क्षुधिताय भिक्षाम्।।

         इति व्यासकवि-ध्यानसम्राट्-   
            कविरश्मि-ज्ञानज्योतिः      
   पण्डितश्रीव्रजकिशोरत्रिपाठिविरचितं
        श्रीलक्ष्मीभिक्षाष्टकं समाप्तम्।
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